Sikandar Ka Muqaddar : नीरज पांडे की फिल्म ‘सिकंदर का मुकद्दर’ में हॉलीवुड स्टाइल तीन क्लाइमेक्स का दमदार इस्तेमाल देखने को मिला है। कहानी में तीन बार मोड़ लाने के बाद भी इसे एक ओपन-एंडिंग के साथ खत्म किया गया है, जो दर्शकों को सोचने पर मजबूर करता है।
नीरज पांडे की फिल्में ‘अय्यारी’, ‘औरों में कहां दम था’ और अब ‘सिकंदर का मुकद्दर’ उनकी निर्देशित बेहतरीन फिल्मों ‘ए वेडनेसडे’, ‘स्पेशल 26’ और ‘बेबी’ के बाद भी दर्शकों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पा रही हैं। ‘एम एस धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी’ के बाद से उनकी फिल्मों में कहानी और निर्देशन में ठहराव नजर आ रहा है। नीरज का अपनी फिल्मों में दर्शकों के धैर्य की परीक्षा लेना और इंटरव्यू में सवाल खत्म होने से पहले जवाब देना उनकी आलोचना का कारण बन रहा है। सोचें, अगर सलीम-जावेद जैसे लेखक उनके साथ काम करते, तो क्या ये कहानियां और दमदार हो सकती थीं?
कहानी खत्म… लेकिन अभी बाकी है!
नीरज पांडे की नई फिल्म ‘सिकंदर का मुकद्दर’ ने पटकथा में तीन क्लाइमेक्स का नया प्रयोग किया है, जो हॉलीवुड सिनेमा से प्रेरित है। हालांकि, इस प्रयास में कहानी को उपसंहार में तीन बार मोड़ने के बाद भी दर्शकों को संतोषजनक अंत नहीं मिल पाता। फिल्म को ऐसी स्थिति में छोड़ा गया है, जिससे यह साफ संकेत मिलता है कि इसके सीक्वल की योजना नेटफ्लिक्स पर बनाई जा सकती है। नीरज ने कहानी को अपनी पुरानी फिल्म ‘औरों में कहां दम था’ के ढर्रे पर ही रचा है। तकनीकी रूप से फिल्म में जिमी शेरगिल को वीएफएक्स की मदद से युवा दिखाने का प्रयास सराहनीय है, लेकिन अविनाश तिवारी और तमन्ना भाटिया के किरदारों को 15 साल के अंतराल के बाद भी उनके चेहरे में कोई बदलाव न दिखाकर कहानी का यथार्थ कमजोर किया गया है। दर्शकों को अधूरी कहानी और चरित्र विकास की कमी महसूस हो सकती है।
‘सीआईडी’ जैसी संक्षिप्त कहानी
फिल्म ‘मुकद्दर का सिकंदर’ की कहानी एक हाई-प्रोफाइल हीरे-जवाहरात की नुमाइश में डकैती की साजिश से शुरू होती है। पुलिस को समय रहते जानकारी मिलती है और लुटेरे मारे जाते हैं, लेकिन 50-60 करोड़ के हीरे गायब हो जाते हैं। मामले की जांच के लिए एक अनुभवी और रिकॉर्ड में अव्वल पुलिस इंस्पेक्टर को लगाया जाता है। वह अपनी खास शैली में तफ्तीश शुरू करता है, लेकिन हालात उसके हाथ से निकल जाते हैं। आरोपियों को जमानत मिलती है, और वह उनमें फूट डालने की कोशिश करता है। इस प्रक्रिया में न केवल वह अपनी नौकरी बल्कि पत्नी का भरोसा भी खो देता है। एक बार के मालिक द्वारा उसकी सच्चाई उजागर करने से कहानी एक भावनात्मक मोड़ लेती है।
परफेक्शन की ओवरडोज!
नीरज पांडे की फिल्म ‘मुकद्दर का सिकंदर’ की पटकथा में वही कमजोरियां नजर आती हैं, जो उनकी पिछली फिल्मों में भी थीं। ये कहानियां एक बेहतरीन उपन्यास बन सकती थीं, लेकिन फिल्म के रूप में निराश करती हैं। हर बात को संवादों में समझाने की आदत दर्शकों की कल्पना शक्ति को सीमित कर देती है। नीरज के किरदारों को दमदार बनाने की कोशिश सिर्फ तेज बैकग्राउंड म्यूजिक पर टिकती दिखती है, जो पर्याप्त नहीं है। उनकी प्रोडक्शन डिजाइन टीम का ‘परफेक्शन’ अजीब लगता है, जैसे सिकंदर का अबू धाबी से लौटते वक्त पहना गया भूरा शर्ट, जो पत्नी की साड़ी, घर के परदे और यहां तक कि डाइनिंग टेबल की कुर्सियों के कवर से भी मेल खाता है। यह मिस्टर परफेक्शनिस्ट वाली ओवर स्मार्टनेस दर्शकों को चौंकाने के बजाय खटकती है।
रहस्य फिल्म की कमजोर मूलवृत्ति
फिल्म “सिकंदर का मुकद्दर” में बोगनवेलिया के खूबसूरत बैकग्राउंड के साथ सिकंदर और प्रिया सावंत के कपड़े भी इन पौधों से मेल खाते हैं, लेकिन फिल्म की मूल प्रवृत्ति दर्शकों की सहज अपेक्षाओं के साथ मेल नहीं खाती। नीरज पांडे ने कहानी को 2009 और 2024 की दो अलग-अलग समय रेखाओं पर बांटा है, लेकिन इस दौरान वह किरदारों के प्रति तो पूरी तरह से सचेत रहे, लेकिन दर्शकों की उम्मीदों और समझ को नजरअंदाज कर दिया। दो घंटे 22 मिनट की फिल्म में ऐसा बार-बार होने से कथानक का असर फीका पड़ जाता है। जो संवाद ट्रेलर में आकर्षक लगे थे, वह फिल्म में फैलकर अपना असर खो देते हैं, और दर्शकों को वह अनुभव नहीं मिलता, जिसकी उम्मीद थी।
जिमी शेरगिल का दमदार comeback!
फिल्म का सबसे बड़ा आकर्षण जिमी शेरगिल और अविनाश तिवारी के बीच की मानसिक तकरार है, जो दर्शकों को बांधे रखती है। हालांकि, यह टॉम और जेरी जैसा हल्का-फुल्का खेल नहीं है, बल्कि एक गहरी मानसिक लड़ाई है, जो फिल्म को अलग बनाती है। जिमी शेरगिल का अभिनय हमेशा की तरह लाजवाब है, और उनकी संवाद अदायगी ने दर्शकों को प्रभावित किया है। हालांकि, अविनाश तिवारी के किरदार को लेकर सवाल उठते हैं, क्योंकि क्या दर्शक उनके किरदार को पूरी तरह से समझने और धैर्यपूर्वक स्वीकार करने के लिए तैयार हैं? फिल्म में बाकी पुरुष किरदारों के लिए उतना गहरा काम नहीं किया गया, जिससे उनकी भूमिका कमजोर महसूस होती है।
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